भारत में इतने पारंपरिक त्योहार मनाए जाते हैं की आश्चर्य होता है कि भारतीयों में इतनी ऊर्जा, इतना उत्साह, इतना उमंग कहां से मिलता है। कभी-कभी तो महीने में ही इतने त्यौहार आ जाते हैं कि घर परिवार के लोगों को फुर्सत नहीं मिलती है। दिवाली का त्यौहार भी 5 दोनों का होता है, इसमें सारे लोग इतने बिजी होते है, घर की सफाई, पकवान, पूजा पाठ, कार्तिक स्नान आदि सब परंपराएं और छठ पूजा अलग-अलग प्रांत में अलग-अलग प्रकार से ये सब तीज़ त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। दिवाली के 10 दिन बाद ही देव उठनी ग्यारस (छोटी दीवाली) का त्यौहार मनाया जाता है, और इसीके साथ हिंदू परिवारों में शादी ब्याह शुरू हो जाते हैं चार माह तक हिंदू परिवारों में शादी विवाह नहीं संपन्न किए जाते हैं।
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवउठनी ग्यारस देवोत्थान ग्यारस या प्रबोधिनी ग्यारस कहा जाता है। एकादशी तिथि को तुलसी विवाह के रूप में भी जाना जाता है। देव उठनी ग्यारस को छोटी दिवाली के रूप में भी मनाया जाता है। तुलसी को माता लक्ष्मी का अवतार माना गया है और शालिग्राम भगवान विष्णु भगवान के अवतार माने गए है, अतः इस दिन भगवान शालिग्राम का विवाह तुलसी के साथ संपन्न किया जाता है।
कब मनाई जाएगी
देव उठनी एकादशी हिंदू कैलेंडर के अनुसार कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है। इस साल यह 12 नवंबर 2024 को मंगलवार के दिन मनाई जाएगी।
देवउठनी एकादशी का महत्व
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु 4 माह के लिए निद्रा योग में चले जाते है, एकादशी तिथि पर भगवान विष्णु अपने योग निद्रा से जागृत होते है, इस तिथि का महत्व इसलिए भी बहुत बड़ा हो जाता है इसके पूर्व के चार महीने भगवान विष्णु जो योग निद्रा में व्यतीत करते हैं, इसका अर्थ यह है कि यह चार महीने भगवान श्री हरि ने मनुष्यों के लिए तप, जप, योग, साधना, ध्यान, पूजन भजन से पुण्य फल प्राप्त करने हेतु अपनी शक्ति और ऊर्जा को संचित करने के लिए संचित करने के लिए समय दिया है। चार माह अपने पुण्य को बल प्रदान करने के लिए मनुष्य अपने अंदर एक नई ऊर्जा भरता है। आसुरी शक्तियों से लड़ने के लिए अपने अंदर पवित्र ऊर्जा संग्रहित करता है। इसलिए भी तिथि का महत्व है कि जब 4 माह पश्चात अपनी जप, तप और साधना की शक्ति को बड़ा कर जब देवतागण जागृत होते हैं तो उनमें असुरों से लड़ने का बल प्राप्त होता है।
देव उठनी ग्यारस की प्रमुख कथा
राजा दंभ के पुत्र शंखचूड़ ने बड़े होकर पुष्कर सरोवर में घोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और ब्रह्मा जी से अजर अमर होने का वरदान प्राप्त किया। ब्रह्माजी के कहे अनुसार शंखचूड़ ने तुलसी से विवाह किया व सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। उसने पृथ्वी, आकाश, पाताल तीनों लोकों में देवताओं, असुरों, गंधर्व, नागो, किन्नर सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त की। उसके अत्याचारों से त्रस्त देवता ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी सभी देवताओं को लेकर विष्णु जी के पास गए तब भगवान विष्णु जी ने बताया कि शंखचूड़ का वध भगवान शिव के त्रिशूल से ही हो सकता है। सभी देवत शिव जी के पास गए। शिव जी ने अपने गण चित्ररथ को शंखचूड़ के पास समझने को भेजा कि वह देवताओं को उनके राज्य वापस कर दे, किंतु शंखचूड ने माना कर दिया। और उसने कहा कि वह महादेव से युद्ध करना चाहता है। विवश होकर शिवजी अपनी सेना को लेकर शंखचूड़ से युद्ध करने निकल पड़े। देवताओं और असुरों में घमासान युद्ध हुआ। लेकिन ब्रह्मा जी के वरदान के कारण शंखचूड़ की मृत्यु नहीं हुई। आखिर में शिव जी ने अपना त्रिशूल उठाया किंतु उसी समय आकाशवाणी हुई कि जब तक शंखचूड़ के पास श्री हरि का कवच और पत्नी तुलसी का सतीत्व अखंडित है, तब तक शंखचूड़ का वध असंभव है। तब भगवान विष्णु ब्राह्मण का रूप धरकर शंखचूड़ के पास गए और उन्होंने श्री हरि कवच उससे मांग लिया शंखचूड़ ने अपना कवच भगवान विष्णु के रूप में आए ब्राह्मण को दान में दे दिया। बाद में विष्णु जी शंखचूड़ का रूप रखकर तुलसी के पास गए और अपनी विजय की की सूचना दी। शंखचूड की पत्नी तुलसी ने शंखचूड़ के रूप में आए भगवान विष्णु की आरती उतारी और पूजन किया और बहुत प्रसन्न हो गई। भगवान विष्णु के साथ उन्होंने रमण किया जिससे तुलसी सतित्व भंग हो गया और भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल से शंखचूड़ की वध कर दिया। तुलसी को जब इस बात का पता चला तब वह क्रोधित हो उठी और उसने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि आपने मेरे साथ छल किया है। आप इस पृथ्वी पर पाषाण बन रहेंगे। तब भगवान विष्णु ने कहा देवी पूर्व जन्म में तुमने मुझे पाने के लिए घोर तपस्या की थी। फलस्वरूप ये घटना घटित हुई। भगवान श्रीहरि विष्णु ने तुलसी को वरदान दिया, तुम्हारा यह शरीर गंदकी गंडक नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। पुष्प पत्रों में सबसे श्रेष्ठ तुम तुलसी के नाम से पूजी जाओगी। मैं पाषाण रूप में सदा तुम्हारे साथ रहूंगा । तभी से तुलसी का विवाह शालिग्राम (पाषाण) भगवान के साथ किया जाता है। हिंदू मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी और शालिग्राम का विवाह करने से अपार पुण्य की प्राप्ति होती है।
इस देवउठनी एकादशी पर क्या करें?
तुलसी विवाह का आयोजन करें:
परिवार और मित्रों के साथ तुलसी माता का विवाह करें। भगवान विष्णु को तुलसी के पौधे के साथ आसन पर विराजित करें उन्हें जल, दूध, दही, शहद, घी से स्नान करावे अक्षत, कुमकुम, हल्दी, चावल से पूजन करें और तुलसी को सुहाग का समान वस्त्र आदि भेंट करें। फुल, फल, मिष्ठान, प्रसाद चढ़ावे। प्रसाद सबको वितरित करें।
व्रत और पूजा करें:
मंडप बनावे:
तुलसी और शालिग्राम के ऊपर गन्ने का मंडप बांधे मंडप को नाडे से बांधे। घंटी बजाते हुए सात फेरे ले। तत्पश्चात आरती करें ।
दान करें:
इस दिन दान का भी विशेष महत्व है, इसीलिए जरूरतमंदों को भोजन और वस्त्र का दान करें।
मंत्र जाप:
"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र का जाप करें जिससे जीवन में सकारात्मकता आएगी।
तुलसी विवाह का महत्व
देवउठनी एकादशी के साथ तुलसी विवाह का आयोजन किया जाता है, जिसे "तुलसी शालिग्राम विवाह" के नाम से भी जाना जाता है। तुलसी माता को विष्णु की पत्नी लक्ष्मी का अवतार माना गया है, और उनके विवाह का आयोजन करना अत्यंत पुण्यदायी माना गया है। तुलसी विवाह के माध्यम से वैवाहिक जीवन में सुख-शांति और समृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
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