Vat Savitri Purnima (21, June 2024)

बेनामी

 

वट सावित्री 2024: पत्नियों के सौभाग्य को बढ़ाने वाला यह व्रत.. इसका महत्व, पुजा विधि व कथा पढ़िए।

वट सावित्री व्रत कब है?

इस वर्ष ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या (6 जून)और 15 दिन बाद आने वाली (21 जून) तिथि वट सावित्री व्रत (Vat Savitri Purnima) के नाम से जाना जाता है। उत्तर भारत की महिलाए और खंडेलवाल, अग्रवाल, बनिया समाज की बहुत सारी महिलाएं, तथा कई  ब्राह्मण अमावस के दिन वट सावित्री की पूजा करते हैं, एवं बहुत सारी महिलाएं व ब्राह्मण  पूर्णिमा को वट सावित्री की पूजा करते हैं।  इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां वट वृक्ष की पुजा करती है।


यह व्रत क्यों किया जाता है? क्यों प्रचलित है? और इसका क्या महत्व है? इसकी पूजन व विधि क्या है ?


महत्व


वट सावित्री पूर्णिमा के दिन सौभाग्यवती महिलाएं अखंड सौभाग्य प्राप्त करने के लिए वट सावित्री व्रत रखकर वट वृक्ष तथा यमदेव की पूजा करती हैं। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक एवं पर्याय बन चुका है। वट सावित्री व्रत में वट और सावित्री, दोनों का विशेष महत्व है। 


उत्तर भारत में ‘’बरगदाही’’के नाम से पुकारे जाने वाले इस व्रत से और इस व्रत से जुड़ी सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा से प्रायः हर सनातनधर्मी भली भांति परिचित है। वैदिक युग का वह अद्भुत घटनाक्रम आज भी पढ़ने-सुनने वाले दोनों को अभिभूत कर देता है। ऐसा विलक्षण उदाहरण किसी अन्य धर्म-संस्कृति में मिलना दुर्लभ है।


महर्षि श्री अरविंद ने इस कथा को इस कथा को मध्य मानकर सावित्री महाकाव्य की रचना की । जिसमें उन्होंने सावित्री के जीवन को अध्यापक यात्रा से आध्यात्मिक याद अनुभूति की यात्रा से जोड़कर बताया है। शास्त्रों के अनुसार पीपल के वृक्ष के समान ही बरगद के वृक्ष को माना गया है। वट वृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु, और अग्रभाग में शिव का निवास होता है।  इस वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान, तपस्या, पूजा आदि करने से सभी मनोकामना पूर्ण होती है।  जैन और बौद्ध धर्म  भी इस वृक्ष की महात्म्य को मानते हैं।  जैनों के भगवान ऋषभदेव ने इसी वटवृक्ष के नीचे तपस्या की थी। जो  आज भी प्रयाग में जैनों के तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव की तपोवन के नाम से आज भी स्थित है। यह वृक्ष लंबे समय तक रहता है अतः इसे अक्षयवट कहते है। यह वृक्ष विशालता के साथ-साथ कई दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है, इसे दीर्घायु वृक्ष भी कहा जाता है। अनंत सालों तक जीवित रहता है, इसकी जटा ऊपर से निकालकर फिर से जमीन में उपजाति है।  बहुत अद्भुत वृक्ष है। आध्यात्मिक और दार्शनिक रूप से है इस वृक्ष का बहुत महत्व है। इस वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ ने बोधत्व प्राप्त किया था। अतः इसे बोधि वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है, जो गया में स्थित है।  इसी प्रकार वाराणसी व भारत के कई स्थानों पर बट वृक्ष खड़े हैं, जिनका अपना महत्व है और उनकी पूजा होती है। 


प्राकृतिक रूप में भी बरगद के पेड़ का विशेष महत्व है यह वातावरण में शीतलता  प्रदान करते हैं। वट वृक्ष प्रकृति को शुद्धता और प्राणियों को प्राण वायु प्रदान करते हैं ।



यह व्रत पतिव्रता सावित्री के नाम से विख्यात है।  सावित्री जिसने अपने पतिव्रत धर्म के प्रभाव से अपने मृत पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापस प्राप्त किए। इसी वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पति को यमराज से पुनर्जीवित होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था, इसलिए हर सौभाग्यवती स्त्री अपने पति की लंबी आयु के लिए बरगद के पेड़ की पूजा करती है।


वट सावित्री व्रत कथा


एक समय की बात है,  बहुत ही कठिन तपस्या के उपरांत राजा अश्वपति को कन्या के रूप में पुत्री की प्राप्ति हुई। राजा ने उस पुत्री का नाम सावित्री रखा। सावित्री बहुत ही रूपवान और गुणवान थी।  समय रहते सावित्री जब बड़ी हुई तो पिता ने सावित्री को योग्य वर चुनने को कहा।  सावित्री वर की तलाश में निकल पड़ी, वर को तलाश करते हुऐ एक दिन जंगल में सावित्री ने सत्यवान को देखा और उसके गुणों को देखकर सावित्री ने मन ही मन सत्यवान को वरण कर लिया। राजकुमार सत्यवान राजा द्युमत्सेन के पुत्र थे, युद्ध में राजपाट छीन जाने कारण जंगल में रह रहे थे। काल के प्रभाव से सत्यवान के माता पिता अंधे हो गए। सत्यवान की अपने मातापिता की सेवा करते देख सावित्री बहुत प्रभावित हुई। और उसने सत्यवान से विवाह करने का निश्चय किया।


दोनों के विवाह के पूर्व नारद मुनि ने सावित्री को बताया कि सत्यवान अल्पायु है..अतः उससे विवाह न करे, किंतु सावित्री निश्चय कर चुकी थी अतः अब किसी दूसरे के बारे में सोचना उसके लिए पाप था, अतः उसने देवर्षि नारद से कहा.. हे मुनि मैं सत्यवान को अपने मन में वरण कर चुकी हु, और स्त्री अपने जीवन में एक ही बार किसी को वरण करती है, बार बार नही, अतः अब मुझे पति के लिए मृत्यु से भी लड़ना पड़े तो मैं यह भी करने को तैयार हूं।


हृदय में चिंता के साथ पिता ने भी सावित्री को उसके भाग्य पर छोड़ सत्यवान के साथ विवाह कर दिया।


सावित्री बड़ी निष्ठा और धर्म का पालन करते हुए अपने सास ससुर व पति की सेवा करने लगी, समय बीता और काल की घड़ी समीप आ गई।  जिस दिन महाप्रयाण का दिन था उसने सत्यवान से कहा.. आज मुझे भी आप अपने साथ जंगल लकड़ी काटने ले चलो।  सावित्री को चिन्ता व दुखी जानकर   सत्यवान ने कुछ नहीं कहा, और अपने साथ ले चलने को तैयार हो गया।  सत्यवान को ऋषि नारद की भविष्य वाणी के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था। 


सावित्री के सौभाग्य के तेज प्रभाव के कारण यमराज के दूत सत्यवान के नजदीक नही आ सके, और वापस लौट गए। मृत्यु का समय निकट आ गया था इसलिए यमराज स्वयं सत्यवान के प्राण लेने के लिए पहुंचे। सत्यवान  चक्कर खा कर गिर पड़ा।   सत्यवान का सिर अपनी गोद में रख कर सावित्री बरगद के पेड़ के नीचे बैठ कर रोने लगी, तभी वहां यमराज पहुंच गए । सावित्री के हज़ार अनुशंसा और विलाप पर भी यमराज नही पिघले।  उन्होंने विधि का विधान और मृत्यु को ही अंतिम सत्य बताया और सत्यवान के शरीर से प्राणों को हर लिया।  सावित्री अपने मृत पति को वही छोड़ यमराज के पीछे पीछे चलने लगी।  बहुत दुर तक जाने के बाद यमराज ने उसे समझाया और लौट जाने को कहा लेकिन सावित्री नही मानी,  कहा यदि आप का विधान सच है तो मेरा भी मेरे पति के साथ रहना धर्म है आप को मेरे प्राण भी हरने होंगे..यमराज के बार बार समझाने पर भी सावित्री ने उनके पीछे चलना नहीं छोड़ा तब उसकी अटल भक्ति और पति प्रेम को  देखकर यमराज विवश हो गए और सावित्री से सत्यवान के जीवन को छोड़ कर कोई वरदान मांगने को कहा । सावित्री ने अपने सास ससुर की नेत्र ज्योति और उनका खोया राजपाट मांगा । वरदान देकर यमराज आगे बढ़े तो सावित्री फिर उनके पीछे पीछे चलने लगी। इस बार यमराज ने सावित्री को डराया और लौट जाने को कहा लेकिन पतिवृता सावित्री अडिग रही।

विवश होकर यमराज ने फिर सावित्री को वरदान मांगने को कहा, सावित्री ने अपनी चतुराई से वरदान मांगा कि, हे भगवन.. मुझे सत्यवान के सौ पुत्रों की माता बनने का वरदान दीजिए।   अपने वचनानुसार यमराज ने तथास्तु कहा और वरदान दिया की चिरकाल तक तुम्हे पतिप्रेम और भक्ति के लिए ये जगत स्मरण करेगा, यह कहकर यमराज ने सत्यवान के प्राण लौटा दिया। वटवृक्ष के नीचे सत्यवान का मृत शरीर जीवित हो उठा। 

सत्यवान और सावित्री दोनों ने यमराज को प्रणाम कर आशीर्वाद लिया। इस प्रकार सावित्री ने अपनी धर्मपरायणता और बुद्धिमत्ता से अपने पति और उसके परिवार के सभी सुखों को प्राप्त किया।


चूंकि इस वटवृक्ष के नीचे सत्यवान जीवित हो उठा तभी से इस वृक्ष की पूजा का विधान बन गया  और प्रतिवर्ष सौभाग्यवती स्त्री अपने पति की लंबी आयु, सुख सौभाग्य की मनोकामना से इस वृक्ष की पूजा करती है ।


पुजन विधि 


ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन स्त्रियां अपनी पुजा की थाली में हल्दी, कुम कुम, चावल, सिंदूर, मेहंदी, शक्कर,चंदन, गुलाल, अबीर, सौभाग्य की 5 वस्तुएं इत्यादि पुजन सामग्री के साथ सुपारी, पैसे, दीपक अगरबत्ती, कर्पूर, कच्चा सूत, नाड़ा फुल फल भी रखे।  महिलाएं रात में कच्चे चने भिगो कर पुजा के लिए ले जाए । तांबे के लौटे में जल और थोड़ा कच्चा दुध रखे। 

सर्वप्रथम दीपक अगरबत्ती जलाकर वृक्ष को प्रणाम करे।  पैसे पर चावल रख उस पर सुपारी रखे और उन्हें गणेशजी मानकर पुजन करे उनके साथ पांच छोटे छोटे पत्थर रखे जो गौर कहलाती है, उनका सब प्रकार से पूजन करे। उन्हें नाड़ा पैसे फल फूल सब चढ़ावे, फिर वट वृक्ष को दुध जल चढ़ावे सब प्रकार से पूजन कर सात बार कच्चा सूत लेकर वट वृक्ष के फेरे ले, चने की दाल के साथ आम चढ़ावे। बाद में कर्पूर की आरती कर सौभाग्य की चीज़े अर्पित करे। सौभाग्यवती स्त्रियों को चने की दाल के साथ आम और पैसे कुम कुम लगाकर प्रदान करे।

वृक्ष के नीचे बैठकर वट सावित्री पूनम की कथा का श्रवण करे। एक समय भोजन कर व्रत को पुर्ण करे।


अत: वट सावित्री व्रत के रूप में वट वृक्ष की पूजा का यह विधान भारतीय संस्कृति की गौरव-गरिमा का एक प्रतीक है।


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